सुनो न ..!
समंदर के पास चले ?
थक गये हो घर परिवार ,समाज
सब का फिक्र कर के
ये तो मुझे पता है ..
तुम हर फिक्र को धूएँ में
उड़ाते चले गए !
पर फिर भी ...
समंदर के सैर करते है
लहरों को गिनते है
बड़ो का मुखौटा उतार
बचपन को जीते है
चलो रेत का घर बनाते है
तुम अपना पॉंव रखो
मै रेत का ढेर रखती हूँ
नहीं रहने दो ..
जब रेत रख थप-थपाऊँगी
तुम्हे दर्द होगा
ये कैसे मै सह पाऊँगी
मै पॉंव रखती हूँ ,
पर नहीं ,
तुम भी तो मेरा दर्द नहीं सह पाते हो
रहने दो अपना अपना बनाते है
ऐसे भी तो ...
छोड़ो ,लहरों को गिनते है
देखे कौन कितना गिन पाते है
खामोश क्यों हो ?
ओह! समझ गई !
डरते हो न की कही आगे पीछे
न हो जाये ..
हाँ मुझे भी डर लग रहा है
कही हम आगे -पीछे हो
हाथ न छुट जाएँ
छोड़ो रहने दो !
पास पास बैठते है
सुख-दुःख बाँटते है
ओह ! ढंडी हवा ,
चादर !भूल गए ..?
ठीक ही हुआ भूल गये
इसी बहाने..
एक ही चादर ओढेंगे....
तुम्हारे और पास आ पाएंगे
अब क्या रेत और क्या लहरों को गिनना
अब तो सांसों से
सांसें मिलने लगी है
जिंदगी फिर से
लहरों पे उतरने लगी है
बहुत देर हुआ अब चलेंगे
फिर यही आकर मिलेंगे
पास- पास बैठ दुःख सुख बाँटेंगे ....
पर सुनो सुनो सुनो ...
इस बार मत भूलना .....!!!
.....साधना ::-
7 टिप्पणियाँ:
मानव जिजीविषा की भाग -दौड़ को बखूबी चित्रित करती हुई कविता
bahut khoobsurat kavita.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
bahut khoobsurt
mahnat safal hui
yu hi likhate raho tumhe padhana acha lagata hai.
or haan deri ke liye sorry.
नए साल की आपको सपरिवार ढेरो बधाईयाँ !!!!
नए साल की आपको सपरिवार ढेरो बधाईयाँ !!!!
नए साल की आपको सपरिवार ढेरो बधाईयाँ !!!!
kya..aa??? ek aur chader lana.bahut achchi kavita hai
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